जिदगी का लेखा-जोखा ...

(स्रोत:- ( मुझे अक्सर सेवा निवृति समारोह के मौके पर कुछ बोलने को कहा जाता है. ऐसे ही अवसर पर उत्पन एक अभिव्यक्ति )
आज फिर हम,
जिंदगी के उस मोड़ पर चले आये है
सामने एक आईना है,
जीवन यात्रा को दिखाने के लिए
प्रतिविम्बित है लेखा-जोखा
हमको समझाने के लिए,
साक्षात प्रमाण यहाँ
हमे संभलने के लिए,
कितना मायूस रहे कितना मुस्कराये है
क्या खोया और क्या पाए है…
हम निर्देशित तो नहीं थे,
वो सब कुछ करने को
जो अबतक करते आये है,
ढकोसले रिश्ते, स्वार्थों का अम्बार
व्यर्थ की बातें, प्रायोजित प्यार,
पथ से विचलित कदमों की लकीरें
लालच में डूबे दूषित विचार,
दौड़ते रहे अबतक जिसके लिए
क्या उसे पकड़ पाये है,
यह एक ठहराव है मनन का
क्या खोया और क्या पाये है…
कहाँ छुपी है
जिंदगी की सार्थकता ?
कहाँ है वह बृक्ष ?
जिसे हमें लगाना था
जिसकी सुखद छाया
आने वाले पीड़ियों को पाना था,
कहा है हमारी
सामाजिक जिम्मेदारियों का
वह सबूत ?
कलंकित मानवता को
सृजित करने का सुखद स्वरूप
जिसे सृष्टीकर्ता को दिखाना था,
जिंदगी को जीत कर आना था
क्या लेकर आना था क्या लेकर लायें है
क्या खोया और क्या पाये है…
★★★