Rp Yadav

हर आदमी के अंदर,
एक और आदमी रहता है ...

वो कल कब आयेगा ?

वो कल, जो आज को खा रहा है, सदियों से तड़पा रहा है, उम्र को घटा रहा है, जिन्दगी को दौड़ा रहा है कब आयेगा ?

वो कल कब आयेगा ? ...

वो कल कब आयेगा ?

 

वो कल,
जो आज को खा रहा है
सदियों से तड़पा रहा है
उम्र को घटा रहा है,
जिन्दगी को दौड़ा रहा है
कब आयेगा ?

वो कल जो,
छुपा है अंधेरों  में
अनिश्चिता के घेरों
समय के फेरों में
शाम और सबेरों में
कब  आयेगा ?
 
वो कल जिसे,
सजाने की चाह में
आज, विकृत हुआ जा रहा है
वो ऊचाई  जिसे
छूने की चाह में
जमीं धसती जा रही है
ऐसे धरातल पर

महल कैसे बन पायेगा ?
वो सपनों का कल
जो आज को रौंद रहा है
जाने कब आयेगा ?

           ★★★

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