बेहतर लगी जिंदगी ...

न जाने क्यों
बेहतर लगी जिंदगी,
पीपल के नीचे, पनघट के तट पर
हवाओ के झोंको में कैसी है ताजगी,
न जाने क्यों
बेहतर लगी जिंदगी…
न होटल न पार्क
न मोटर न हार्न
न घड़ी की सुई
न बनावटी श्रृंगार
पुराने फटे कपड़ो में
खूबसूरत दिखी बन्दगी
न जाने क्यों
बेहतर लगी जिंदगी….
दिल को लुभाती है
हर पल बुलाती है
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण
हर घर में दिखती है
गांवों की सादगी
न जाने क्यों
बेहतर लगी जिंदगी….
मुझको बुलाती है
हर पल तरसाती है,
लौट आओ घर अब
गीत गुनगुनाती है
खेतो खलिहानों में है
फिजाओं की आवारगी
न जाने क्यों
बेहतर लगी जिंदगी…
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