पराई होती जिंदगी ...

अब ये लगने लगा है
अपनी ही जिंदगी,
अपनी मुठ्ठी में नहीं होती
जब चाहो जहां चाहों,
इस पार से उस पार चले जाओ
ये सब बचपन की बातें थी,
उम्र के इस पहर में,
अब ये मुमकीन नहीं होती
अब ये लगने लगा है
अपनी ही जिंदगी
अपने मुठ्ठी में नहीं होती…
ये दिन और रात,
जो मेरे हिस्से की दौलत है
मेरे ही आँखों के सामने
किसी और के लिए खर्च हो रहा है,
अपना नसीब गहरी नींद में सो रहा है,
ये बात अब समझ में आने लगी है
अपनी जिंदगी पराई होने लगी है,
हर कदम,
अपने मंजिल के लिए नही होती
अब ये लगने लगा है
अपनी ही जिंदगी,
अपनी मुठ्ठी में नहीं होती…
हर दिन,
एक क़त्ल होता है
अपने ही हाथों से अपने ही वादों का,
हर रात उभरता है एक दर्द
किसी के दिये हुए पुराने जख्मों का,
सो जाता है ये तन
कुछ यादें नहीं सोतीं,
अब ये लगने लगा है
अपनी ही जिंदगी ,
अपनी मुठ्ठी में नहीं होती…
हर सुबह:
एक निशाँ मिलता है,
अपने आँगन में
रात के रोने व तारों के जलने का,
हर शाम
गवाह बनाता है,
ग़मों के उभरनें व अरमानों के टूटनें का,
दिल अब ये मानने लगा है
हर सीप में मोती नहीं होती,
अब ये लगने लगा है
अपनी ही जिंदगी,
अपनें मुठ्ठी में नहीं होती …
★★★