क्या भाग्य कर्म से ऊपर है ?

एक व्यक्ति,
सुबह सबेरे
एक नियत समय पर,
अपने अभीष्ट देव के सामने
अगरबत्ती सुलगाता है.
हाथ जोड़कर नतमष्तक होता है
शपथ लेता है,
आज से
ज़िंदगी के हर दिन,
हर पल का सदुपयोग करूंगा
जो अनर्थ कल तक करता आया हूं
आज से उसे छोड़ दूंगा,
आज वह
एक नया सबक सिखता है
कल का दिन
आज के आईने में
उसे बदसूरत सा दीखता है …
वह व्यक्ति दूसरे दिन,
उसी वक्त उसी अभीष्ट देव के सामने,
पुन: अगरबत्ती सुलगाता है
आरती उतारता है
हाथ जोड़ता है
नतमष्तक होता है
वही शपथ लेता है जो कल लिया था,
किंतु आज,
वह लज्जित और शर्मिंदा है
क्योंकि,
आज के आईने में भी,
गुज़रे कल का ही प्रतिविम्ब देखता है…
पुन:
तीसरे, चौथे और प्रतिदिन,
बार-बार वही क्रिया अपनाता है
अपने अभीष्ट देव के पास जाता है
उसी वक्त उसी अभीष्ट देव के सामने,
पुन: अगरबत्ती सुलगाता है
आरती उतारता है
हाथ जोड़ता है
नतमष्तक होता है
वही शपथ लेता है जो कल लिया था,
किंतु आज,
वह लज्जित और शर्मिंदा है
क्योंकि,
आज के आईने में भी,
गुज़रे कल का ही प्रतिविम्ब देखता है…
पुन:
तीसरे, चौथे और प्रतिदिन,
बार-बार वही क्रिया अपनाता है
अपने अभीष्ट देव के पास जाता है
अर्चना करता है, शपथ लेता है
बदल जाने का कसम खाता है
किन्तु हर रोज
गुज़रे कल का ही प्रतिविम्ब देखता है…
अब कारण पूछता है
हर दिन से हारने का,
हर रोज
उसी बदसूरत प्रतिविम्ब के उभरने का,
हर दिन से हारने का,
हर रोज
उसी बदसूरत प्रतिविम्ब के उभरने का,
बार बार
असफल होने का
असफल होने का
अब वह,
अपने वादों से निरूतर है
पूजा, अर्चना से निराश,
आस्था से आशंकित है
पूछता है अपने इष्टदेव से
क्या भाग्य कर्म से ऊपर है ?
★★★